युवाओं में सुसाइड करने के विचार पहले की तुलना में ज्यादा आ रहे हैं. वजह कुछ और नहीं, कोरोना है. अमेरिका में हुई स्टडी के मुताबिक कोरोना के दौरान दुनिया भर में डिप्रेशन और एंग्जाइटी के मामले 40% तक बढ़ गए हैं.
वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन के मुताबिक दुनिया में हर साल 8 लाख लोग सुसाइड कर रहे हैं. सबसे ज्यादा प्रभावित लो और मिडिल इनकम वाले देश हैं, क्योंकि यहां मेंटल डिसऑर्डर से पीड़ित 76% से 85% लोगों को कोई ट्रीटमेंट ही नहीं मिल पाता.
बात 15 से 29 साल के युवाओं की करें तो उनमें सुसाइड की सबसे बड़ी वजह डिप्रेशन है. ऐसे में एक्सपर्ट्स और पैरेंट्स बच्चों के जेहन से सुसाइड करने के विचार को निकालने के तरीके तलाश रहे हैं. आइए जानते हैं युवाओं में सुसाइड के रिस्क फैक्टर क्या हैं और वे इससे बाहर कैसे निकलें.
युवाओं में 45% आत्महत्या की वजह, मेंटल हेल्थ डिसऑर्डर
अमेरिकी संस्था सुसाइड अवेयरनेस वॉयसेज ऑफ एजुकेशन के मुताबिक युवाओं में आत्महत्या बढ़ने की कोई एक वजह नहीं है. कई ऐसे फैक्टर्स हैं, जो युवाओं में आत्महत्या के रिस्क को बढ़ाते हैं. दुनियाभर में हर साल जितने युवा आत्महत्या कर रहे हैं, उनमें से 45% मेंटल हेल्थ डिसऑर्डर के शिकार होते हैं. दुनिया में सबसे बड़ा रिस्क फैक्टर डिप्रेशन है.
भारत में सुसाइड की सबसे बड़ी वजह पारिवारिक समस्या
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आंकड़ों के मुताबिक 2019 में देश में 1 लाख 39 हजार लोगों ने सुसाइड किया. इसमें से 67% यानी 93 हजार लोग ऐसे थे जिनकी उम्र 18 से 45 साल थी. 2018 में यह आंकड़ा 89 हजार 407 था. यानी 2019 में देश में युवाओं का सुसाइड 4% बढ़ गया. देश में सुसाइड की सबसे बड़ी वजह पारिवारिक समस्या है, इसके बाद ड्रग एब्यूज और मेंटल डिसऑर्डर अन्य वजहे हैं.
जिन युवाओं में आत्महत्या का रिस्क ज्यादा, उनका इलाज जरूरी
अमेरिकी सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के साइंटिस्ट डॉक्टर रेबेका लीब कहते हैं कि जो युवा तनाव, डिप्रेशन, नशे और पारिवारिक समस्याओं से ज्यादा परेशान रहते हैं, उनमें आत्महत्या का रिस्क ज्यादा होता है.
जानिए डॉ. लीब से उन युवाओं के इलाज के 3 तरीके, जिनमें आत्महत्या का रिस्क ज्यादा है
1. टॉक थेरेपी
टॉक थेरेपी को साइकोथेरेपी या कॉग्नटिव बिहेवेरियल थेरेपी (CBT) भी कहा जाता है. यह युवाओं में आत्महत्या के रिस्क को कम करके का सबसे असरदार इलाज है. इसमें पीड़ित से बात की जाती है, इस दौरान उसके नेगेटिव और पॉजिटिव फीलिंग्स को नोट किया जाता है. इसके बाद पीड़ित की काउंसलिंग करके, नेगेटिव फीलिंग्स को पॉजिटिव से रिप्लेस किया जाता है.
2. दवाइयों के जरिए
टॉक थेरेपी कारगर तो है, लेकिन उतनी नहीं कि यह पीड़ित को पूरी तरह से नॉर्मल कर दे. अगर किसी युवा में आत्महत्या का रिस्क बढ़ गया है, तो जाहिर है उसमें एंग्जाइटी और डिप्रेशन का स्तर बहुत ज्यादा हो चुका है. ऐसे मामलों में दवाइयां बहुत जरूरी हो जाती हैं.
3. लाइफ स्टाइल में बदलाव
ऐसे लोग जिनमें आत्महत्या का रिस्क ज्यादा है, उन्हें अपनी लाइफस्टाइल पर बहुत ध्यान देना चाहिए. कई स्टडी में यह बात सामने आई है कि लाइफस्टाइल किसी भी मेंटल डिसऑर्डर को ठीक करने में 50% तक कारगर है.